Prachi Prajna (Dec 2020)

भारतीयदर्शन में अद्वैत और अद्वय

  • डॉ.शशिकान्‍त द्विवेदी

Journal volume & issue
Vol. VI, no. 11
pp. 226 – 236

Abstract

Read online

वेदान्‍तशास्‍त्र के ग्रन्‍थों एवं बौद्ध दर्शन के ग्रन्‍थों में अद्वैत एवं अद्वय शब्‍द का प्रयोग समान अर्थ में पाया जाता है। किन्‍तु व्‍याकरण दृष्टि से, सन्‍दर्भ दृष्टि से तथा महापुरूषों की प्रयोग दृष्टि से इन दोनों शब्‍दों के अर्थों में कुछ भेद प्रतीत होता है। किन्‍तु पथिकृत् पूर्वाचार्यों ने दोनों शब्‍दों का प्रयोग समान अर्थ में क्‍यों किया है। शब्‍दों पर विचार करते हैं तो देखते हैं कि महर्षि पाणिनि‍ के दो सूत्र हैं- ‘संख्‍याया अवयवे तयप्’ तथा ‘द्वित्रिभ्‍यां तयस्‍यायज् वा’ इन दोनों सूत्रों के द्वारा ‘द्वौ अवयवौ अस्‍य‘ इस विग्रह में क्रमश: तयप् तथा तयप् को अयच् करके द्वयम् शब्‍द बनता है। जिसका अर्थ होता है दो अवयवों वाला। फिर इससे नञ् समास करके न द्वयम् ऐसा विग्रह करके अद्वयम् शब्‍द बनता है। जिसका अर्थ होता है- जिसमें दो अवयव न हो। ये दो अवयव कौन से हें। यह भी स्‍पष्‍ट किया जाएगा। इसी प्रकार अद्वैत शब्‍द की भी व्‍युत्‍पत्ति है। जैसे- द्वाभ्‍यां प्रकाराभ्‍याम् इतं प्राप्‍तम् इति द्वीतं, द्वीतमेव द्वैतं, न द्वैतम् अद्वैतम्। अर्थात् द्वैत का अभाव। इस अद्वयता की व्याख्या करते हुए भाष्‍यकार आचार्य शङ्कर रज्जू-सर्प आदि दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि प्राण आदि अनन्त असत् अविद्यमान भावों की कल्पना का भी आधार अद्वय सत्स्वरूप आत्मा ही है। इस प्रकार अद्वय अद्वैत तथा अद्वितीय इन तीन शब्‍दों के तीन अर्थ बनते हैं – अद्वय का अर्थ अवयव द्वयरहित, अद्वैत का अर्थ प्रकारद्वय रहित और अद्वितीय का अर्थ पूरकद्वयरहित। इन सभी पर प्रस्‍तुत निबन्‍ध में विचार किया गया है।