Prachi Prajna (Jun 2020)
प्राचीन भारत में ऋणादान की प्रक्रिया - याज्ञवल्क्य एवं नारद स्मृति के विशेष सन्दर्भ में
Abstract
वर्तमान समय में जिस प्रकार ऋणादान एवं ऋण के विषय महत्त्वपूर्ण हैं, उसी प्रकार प्राचीन न्याय प्रणाली अथवा धर्मशास्त्रीय विधा में ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे। प्रायः सभी स्मृतिग्रन्थों एवं धर्मसूत्रों में इन विषयों का प्रतिपादन किया गया है। प्राचीन ऋणादान एवं ग्रहण की प्रक्रिया के रूप में धन को दूसरे के परोपकारार्थ हेतु देने और उसको चुकाने की प्रथा का उल्लेख भारतीय प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध है। ऋग्वेद में एक स्थान पर वैदिक ऋषि कहते हैं कि जिस प्रकार हम अपने द्वारा आवश्यकता पड़ने पर किए गए ऋण का भुगतान करते हैं, उसी प्रकार हमें बुरे स्वप्नों द्वारा होने वाले हानिकारक प्रभावों को हमेशा दूर भगाना चाहिए। जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल से ही यह प्रथा सभ्य समाज में प्रचलित थी, तथा उसको परोपकार एवं लाभ दोनों के लिए प्रयोग में लाया जाता था, तथापि लिए गए ऋण को लौटाना भी प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य होता था। स्मृति ग्रन्थों में ऋणादानादि विषयों का उल्लेख करते समय न केवल ऋण के लेन-देन के नियम प्रस्तुत किए गए हैं, अपितु उनके महत्त्व को भी प्रतिपादित किया गया है। प्राचीन काल में ऋण लेने के विशेष नियम प्राप्त होते हैं, जिसमें ऋण लेते समय का उद्देश्य स्पष्ट होता है, अर्थात् ऋण किस कार्य हेतु लिया जा रहा है। उद्देश्य के आधार पर उसको भुगतान करने के अधिकारी का निर्धारण होता था। उदाहरण हेतु यदि किसी व्यक्ति ने परिवार के भरण-पोषण हेतु ऋण स्वीकार किया है, तो ऐसी स्थिति में पारिवारिकके सभी लोगों का दायित्व होता है कि समय आने पर वे उसका भुगतान भी करें। जिसमें कुटुम्ब हेतु ऋण, स्वार्थ हेतु ऋण, आपात्काल की स्थिति में लिए जाने वाले ऋण, पिता द्वारा स्वार्थ हेतु लिया गया ऋण, पुत्र द्वारा स्वार्थ लाभ हेतु अधिकृत ऋण एवं स्त्री द्वारा कृत् ऋण इत्यादि विविध विषय यहाँ प्राप्त होते हैं।